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शहर में कर्फ़्यू

kavita~Kala
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अपनी कुछ नयी पुरानी स्मृतियों से मेरे मस्तिष्क में उठने वाले, दंगों के उन भयानक दृश्यों को शब्दों में पिरोने की कोशिश की है, जिनकी कल्पना मात्र से ही ऑंखें नम और रोएँ भरभरा जाते हैं और साथ ही एक छोटी सी आशा भी की है, एक ऐसे दिन की           ज़ब धर्मध्वजी का ये खेल समाप्त कर अमन के साथ मानवता की सुरभित कलियाँ दशों दिशाओं को सुगन्धित करेंगी

मची शहर के, गलियारों में
आनन -फानन अति भारी
बार एक फिर, धर्मध्वजी में
गई जगत की मति मारी ।१।


1

पुलिस के जत्थे, चौक पे चौकस
दहशतगर्दी गलियों में
खून की धारें, फूटीं पग-पग
लाश की जमघट नदियों में |२।

2

हैवान की नंगी, सूरत नचती
नेपथ्य, कहीं चौबारों में
अस्मत
लुटती थी
चीख़ दब गयी
बाग-बाग दीवारों में ।३।

3

सन्नाटा, झन्नाहट पग-पग
जहाँ थे कल तक, ठेले-मेले
खून के थक्के, जमे जहाँ-तँह
कल को बिकते, थे केले ।४।

4

शहर समूचा, साँप सूँघ गये
श्मशान, लगती दुनिया
तलवारें नंगी लहरायीं
गूँज रहीं, गोली गलियाँ ।५।

5

बाजारों में, आगजनी
स्टेशन जल-जल राख़ हुये
शटर तोड़, सम्पत्ति लूट गयी
पथ्य को रोगी तरस गये ।६।

6

घर-घर मातम, नर्तन करता
किसी की बिटिया, बाप गुजरता
ज़िन्दा              तब ईलाज़ को तरसे
मरे कफ़न, इन्सान तरसता ।७।

7

सामाजिक, रिश्ते-नैतिकता
क्रोध-कलह ने, बिथका दीं
आज़ शहर में, कर्फ़्यू है
आकाशवाणी ने बतला दी ।८।

8

तो आइए सङ्कल्प लें कि धर्म के नाम पर नहीं लड़ेंगे
एक दुसरे की धार्मिक भावनाओं को चोट नहीं पहुँचायेंगे
शान्ति और सामंजस्य बना कर, इस अखण्ड भारत की “विभिन्नता में एकता” को बरकरार रखेंगे और अपने इस अनमोल हीरे की चमक को पल-पल, छिन-छिन बढ़ाते रहेंगे।


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